Saturday, 16 March 2013

समन्दर

समन्दर

मौज साहिल से टकराती है जो तुम हंस्ती हो.
ये तारे फलक पर पलटते हैं ..
तुम्हारी अंगराई भर पर
सांसें लेती हो तो उफान उठता है -
पलटती हो तो तूफान...
लम्हों के तिनके चुनकर ज़मीन से
नाचाती हो सदियों को अपनी लहरों पर
एहसास के इस समन्दर में तैरते
पुराने कितने किस्से सुनाती हो रात भर...

पर इस बार लगता है की लहर
हर लय भूलना चाहते हैं.
मौज मंज़िल नहीं असर मांग रही हैं.
येह छींट छलकते, मुझ पर, तुझ पर..
कुछ नयी गर्जना का अन्देशा लाती हैं

कल सुबह येह महासागर फैलेगा...
और...
अपने विस्तार में समा लेगा सबको
गर्भ से जन्मेगा जो - तुम्ही सा होगा -

गहरा, सीमाहीन और निर्मल.

शतद्रु बागची -अगस्त २०१२

Wednesday, 13 March 2013

बिकते हो क्यूँ रोज़ाना?



महज़ बेचने खरीदने से बढ़कर है,
तोलने और मोल भाव से परे,
जायज़ नज़ायज़ तरकीबों से आगे, और,
इन खानक्ति कौडियों के पीछे

...हम लोग बस्ते हैं.

हमारी खुशिया और दुख,
ग्लानी और सुख.
हमारी हसिया, हसरतें - शरारत और शिकायतें,
इन सुनहरे सिक्कों में नहीं तोल सकते...!

थोडा ज्यादा आज़ाद हो हमसे.
ताकत में भी हो थोडा ज्यादा

पर हसरतें हमारी उंची हैं तुमसे 
हंसी तुमसे कहीं उम्दा...
खायालों की उडान में हमारे भरा हर रंग का सपना.
तुम्हारे सिक्कों से भारी हमारा जज़बा है
तरकीबों से तेज़ हैं अर्मा
हुमें जीतने की तुम जितनी कोशिश करते हो
हुमें एक दिन पूरा खरीदने के लिये
क्यूँ यूँ कौडियों में बिकते हो रोज़ाना?

शतद्रु बागची - मार्च २०१३

Sunday, 3 March 2013

ज़फ़र का शहर - दिल्ली

ज़फ़र का शहर - दिल्ली


उलझे सवालों की तस्वीरें बंकर, आँखों को चुभती तेरी हेर नज़र.
ज़मनों से गुज़रते हुए, जाने किस मुकाम पे है येह सातवान शहर.

ज़ुबानों की तेज़ तकरार, सड़क पर रोज़ जीत हार
पहियों पर भगाते किस्मतों का भार
या नुक्कड चौराहों पर गुमनान - 16 लख बे-घरबार
दिल्ली तेरे दरबार में ...
उजाले से भीक मांगते और अन्ध्रों को रिश्वत देते हैं,

फिर फरेब की चादर से सब कुछ धक देते हैं.
असर किसी लहर हा नहीं
नही छुता कोई नया खायल
बदलता है तू हर शाम -
थोडा और सेहमा, थोडा और अंजान
फिर सुबह से दौड में जीटने की होड
जो नंब होटी नब्ज़ों में भरा सिक्कों का शोर

शयद ज़फ़र की है लगी है या ...
गुज़रते हवाओं की नज़र.
तुझे आज देख कर लगता नहीं
ज़िंदा है येह शहर.

शतद्रु बागची - फेब्रुअरी २०१३

बाज़ार से बिस्तर तक - Occupy Wall Street

बाज़ार से बिस्तर तक

बाज़ार से बिस्तर तक, सब एक से नज़र अते हैं.
तुम भी अब उनके जैसे दिखती हो
सब्ज़ अब लाल हो गयी है, और लाल सुनहरी.
अश्क अंखों ही के जैसे ...
छलके जा रहें हैं - खुद बा खुद...
अब रातें दिन से मिलने के लिये
पौ फटने का इंतज़ार भी नहीं कर्ती
न ही लब्ज़ों को सुरों में धलने के लिये
ज़ुबान की ज़रूरत रहती है


संसों की आज़ाद खुशबू तो एक सी ही थी
अश्कों के पैमाने भी अब एक से हुए.
कैलिफोर्निया से कैलकत्ता तक - सपने हमेशा संग रेहते थे,
कैलकत्ता से कैलिफोर्निया तक अब हम एक ही रंग हुए

शतद्रु बागची - जनुअरी २०१३