Wednesday, 13 March 2013

बिकते हो क्यूँ रोज़ाना?



महज़ बेचने खरीदने से बढ़कर है,
तोलने और मोल भाव से परे,
जायज़ नज़ायज़ तरकीबों से आगे, और,
इन खानक्ति कौडियों के पीछे

...हम लोग बस्ते हैं.

हमारी खुशिया और दुख,
ग्लानी और सुख.
हमारी हसिया, हसरतें - शरारत और शिकायतें,
इन सुनहरे सिक्कों में नहीं तोल सकते...!

थोडा ज्यादा आज़ाद हो हमसे.
ताकत में भी हो थोडा ज्यादा

पर हसरतें हमारी उंची हैं तुमसे 
हंसी तुमसे कहीं उम्दा...
खायालों की उडान में हमारे भरा हर रंग का सपना.
तुम्हारे सिक्कों से भारी हमारा जज़बा है
तरकीबों से तेज़ हैं अर्मा
हुमें जीतने की तुम जितनी कोशिश करते हो
हुमें एक दिन पूरा खरीदने के लिये
क्यूँ यूँ कौडियों में बिकते हो रोज़ाना?

शतद्रु बागची - मार्च २०१३

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