Saturday, 16 March 2013

समन्दर

समन्दर

मौज साहिल से टकराती है जो तुम हंस्ती हो.
ये तारे फलक पर पलटते हैं ..
तुम्हारी अंगराई भर पर
सांसें लेती हो तो उफान उठता है -
पलटती हो तो तूफान...
लम्हों के तिनके चुनकर ज़मीन से
नाचाती हो सदियों को अपनी लहरों पर
एहसास के इस समन्दर में तैरते
पुराने कितने किस्से सुनाती हो रात भर...

पर इस बार लगता है की लहर
हर लय भूलना चाहते हैं.
मौज मंज़िल नहीं असर मांग रही हैं.
येह छींट छलकते, मुझ पर, तुझ पर..
कुछ नयी गर्जना का अन्देशा लाती हैं

कल सुबह येह महासागर फैलेगा...
और...
अपने विस्तार में समा लेगा सबको
गर्भ से जन्मेगा जो - तुम्ही सा होगा -

गहरा, सीमाहीन और निर्मल.

शतद्रु बागची -अगस्त २०१२

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