बाज़ार से बिस्तर तक
बाज़ार से बिस्तर तक, सब एक से नज़र अते हैं.
तुम भी अब उनके जैसे दिखती हो
सब्ज़ अब लाल हो गयी है, और लाल सुनहरी.
अश्क अंखों ही के जैसे ...
छलके जा रहें हैं - खुद बा खुद...
अब रातें दिन से मिलने के लिये
पौ फटने का इंतज़ार भी नहीं कर्ती
न ही लब्ज़ों को सुरों में धलने के लिये
ज़ुबान की ज़रूरत रहती है
संसों की आज़ाद खुशबू तो एक सी ही थी
अश्कों के पैमाने भी अब एक से हुए.
कैलिफोर्निया से कैलकत्ता तक - सपने हमेशा संग रेहते थे,
कैलकत्ता से कैलिफोर्निया तक अब हम एक ही रंग हुए
शतद्रु बागची - जनुअरी २०१३
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